ग़ज़ल
कौन कहता है मोहब्बत को जबाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निग़ाहों से बयाँ होती है
वो न आए तो सताती है ख़लिश सी दिल को
वो जो आए तो खलिश और जवाँ होती है
रूह को याद करे दिल को जो पुर-नूर करे
हर नज़ारे में ये तनवीर कहाँ होती है
ज़ब्त सैलाब-ए-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात है आँखों से अयाँ होती है
जिंदगी एक सुलगती सी चिता है 'साहिर '
शो'ला बनती है न बुझ के धुआँ होती है
साहिर होशियारपुरी
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