नीतीश कुमार और बिहार में शराब बंदी
तब पटना से दिल्ली तक का वाचाल बिहारी नीतीश बाबू के मोहपाश में था… —————
उत्तर बिहार के मोतिहारी में ज़हरीली शराब पीने से तीस से ज़्यादा लोग मारे गये हैं और कई गंभीर रूप से बीमार हैं. यह मैं अक्सर कहा करता हूँ, आज फिर कह रहा हूँ. क़रीब सोलह साल पहले गांधी और लोहिया का अनुयायी होने का दावा करने वाले नीतीश कुमार ने पूरे बिहार में गली-कूचे में मसालेदार शराब की दुकान खोल दिया था. मनमाने ढंग से इनके टेंडर बाँटे गए और एक ख़ास पार्टी (आज के दौर में नाम लेना ख़तरनाक है) के समर्थकों को उपकृत किया गया. इन दुकानों के लिए स्कूल, अस्पताल या रिहायशी इलाक़ा के पास होने की भी शर्तें नहीं थीं. इन दुकानों में पाउच वाली शराब बिकती थी.
कुछ ही दिनों में ट्रक के ट्रक पाउच की सस्ती शराब की ढुलाई होने लगी. निम्न आयवर्ग, बेरोज़गार युवा, ग़रीब कामगार आदि को ग्राहक बनाया गया. उन्हें लत लगायी गयी. इससे समाज और परिवाह तबाह होने लगे, लेकिन बिहार के मुँहज़ोर इस पर ख़ामोश रहे और मीडिया ने भी परवाह नहीं की. सबको जीडीपी की पड़ी थी, पटना से दिल्ली तक का वाचाल बिहारी नीतीश बाबू के मोहपाश में था. जब बड़ी तादाद में लोगों को सस्ती और नुक़सानदेह शराब का आदी बना दिया गया, तो 2015 के चुनाव के बाद शराबबंदी का पासा फेंका गया. लेकिन खेल कुछ और था. अब तस्करी और मिलीभगत से शराब बेचना था.
मतलब यह कि सरकारी कर देने से भी बचना था तथा शराब के धंधे पर नियंत्रण भी रखना था. आज बिहार में शराब की जिस धड़ल्ले से आपराधिक बिक्री हो रही है, वह भयावह है. इसके साथ ग़रीब तबके के लोगों को शराबबंदी के नाम पर जेलों में ठूँसने का सिलसिला भी चलता रहा है. मर भी वही रहा है और दोहन भी उसी का हो रहा है.
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