कविता

मत पढ़ने दो अपने बच्चों को,
मंटो, इस्मत, अमृता या साहिर को,
या फिर पाश, धूमिल, नागार्जुन,
विद्रोही, मुक्तिबोध या दुष्यंत जैसों को
ख़याल रखो, कि हाथ ना लगे उनके,
इनकी एक भी कविता या लेख
क्योंकि अगर पढ़ लिया इस नस्ल ने इन सबको,
तो ये बच्चे सोचने लगेंगे तौलने लगेंगे
टटोलने लगेंगे और फिर बोलने लगेंगे।
और फिर ये बच्चे परते खोलने लगेंगे तय किये मयारों की।
दीवारें तोड़ने लगेंगे विचारों के दीवारों की।
और ले लेंगे ये सहारा तर्कों के दीवारों की।
फिर क्या करोगे तुम?
कैसे संभालोगे तुम?
अपना राष्ट्रवाद?
अपना भाषावाद?
अपना साम्यवाद?
अपनी तय की हुई दिशायें,
अपनी बनी बनाई परिभाषायें।
मैं तो कहता हूं जला दो
ऐसे लिखे हुये हर एक शब्द वाक्य अक्षर मत छोड़ो
इनके कलम से निकली हुई एक भी मात्रा
क्योंकि अगर पढ़ लिया इस नस्ल ने
इन सबको तो ये बच्चे सोचने लगेंगे..
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