हबीब जालिब

अप्रैल 8, 2023 - 00:28
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हबीब जालिब

12 मार्च 1993 को विदा कह देने वाले पाकिस्तान के आम अवाम के शाइर हबीब जालिब का जन्म भी इसी महीने यानी 24 मार्च 1928 को भारत में पंजाब के होशियारपुर जिले में हुआ था।

पिछले कुछ सालों में भारत में जब जब कोई जन आंदोलन उठ खड़ा होता है, जालिब की ही गजलें और कविताएं गूंजने लगती हैं, व्यवस्थापकों और सत्ताधीशों के गलत फैसलों व नीतियों के प्रतिरोध में सबसे ज्यादा प्रभावशाली, सबसे ज्यादा माकूल, सबसे ज्यादा तीखी कविताएं हबीब जालिब की ही सुनाई देती हैं।

लेकिन जालिब ही क्यों? भारतीय कवियों की कविताएं क्यों नहीं?

 क्योंकि हबीब जालिब सिर्फ कवि नहीं थे, वे सिर्फ लिख कर और स्टेज पर अपनी कविताऐं सुनाकर तालियां नहीं बटोर रहे थे। वे पाकिस्तान के पहले डिक्टेटर अयूब खान के खिलाफ लगातार आंदोलन चला रहे थे, सड़कों पर, स्टेज पर, रेडियो पर। वर्षों जेल में रहे। याहिया खान के समय जेल में रहे। लोकतंत्र के मसीहा कहे जाने वाले जुल्फकार भुट्टो के गलत फैसलों के खिलाफ लिखने पर फिर जेल गए। उसके बाद जिया उल हक़ के शासन में होने वाले जुल्म और हत्याओं के खिलाफ लिखने और गाने में वर्षों जेल रहे। बेनजीर भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने पर जब फिर से लोकतंत्र बहाल हुआ तब इन्हें जेल से छोड़ा गया।

12 मार्च 1993 को 64 की उम्र में विदा लेने वाले हबीब जालिब साहब ने संभवत 15 से भी ज्यादा साल जेलों में गुजारे। सत्ता के जुल्म के खिलाफ़ लिखते रहे, लड़ते रहे। इस्लामिक कट्टरता और मौलानाओं की आलोचना में भरपूर लिखा, और सड़कों, चौराहों, स्टेजों, रेडियो पर गाया। यही वो कारण है कि कोई भी भारतीय कवि और उनकी कविता, जनता के प्रतिरोध की आवाज के रूप में जनमानस की प्रतिनिधि नहीं बन पाती, क्योंकि भारतीय कवि जनता के साथ खड़े होने व संघर्ष का साहस नहीं जुटाता।

इनकी सबसे ज्यादा पढ़ी, गाई जाने वाली कविता पढ़िए, जो कि पाकिस्तान के पहले डिक्टेटर अयूब खान के खिलाफ लिखी गई थी।

 दस्तूर

हबीब जालिब

 दीप जिस का महल्लात ही में जले

चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले

वो जो साए में हर मस्लहत के पले

ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से

 मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से

क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को जहल की रात को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो

 जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो

इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

 तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ

चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ

तुम नहीं चारागर कोई माने मगर

 मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

The light which shines only in palaces Burns up the joy of the people

 in the shadows Derives its strength from others' weakness

 That kind of system, like dawn without light

I refuse to acknowledge, I refuse to accept

I am not afraid of execution,

Tell the world that I am the martyr

 How can you frighten me with prison walls?

This overhanging doom, this night of ignorance,

I refuse to acknowledge, I refuse to accept

"Flowers are budding on branches", that's what you say,

 "Every cup overflows", that's what you say,

"Wounds are healing themselves", that's what you say,

 These bare-faces lies,this insult to the intelligence

, I refuse to acknowledge, I refuse to accept

For centuries you have all stolen our peace of mind

 But your power over us is coming to an end Why do you pretend you can cure pain?

Even if some claim that you've healed them,

I refuse to acknowledge, I refuse to accept.

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