कविता
मुझे लगा सरकार मेरा साथ देगी
फॉर्म भरने के पैसे जुटाए तो
सेंटर इतना दूर धकेला की
पहुँचते-पहुँचते ओवर-एज हो गया
ईश्वर तक पहुँचने के सारे साधन
जब मेरे बजट से बाहर हैं
सरकार कह रही है ‘मंदिर बन रहा है’
ये तक नहीं कह सकता
‘अस्पताल बनवा दो
सत्ताईस की उम्र में मैं बूढ़ा हो रहा हूँ’
फिर मुझे लगा समाज मेरा साथ देगा
भागा-भागा गया उसके पास
एक अकेले व्यक्ति की तरह।
वर्षों की वार्तालाप के बाद
समाज ने मुझे लौटाया समाज को
एक भीड़ बनाकर
अंततः घर आया लगा कोई साथ दे न दे परिवार साथ देगा
दरवाज़ा खटखटाया नहीं आई कोई आवाज़
सब सो गए भाई, माँ, और पिताजी।
बाईस’ तक वे मुझे जानते थे
‘सत्ताईस’ तक उन्हें एहसास था
मेरे ‘कौन’ होने का मैं ‘तैंतीस’ पार कर चुका हूँ
अब वे मुझे नहीं जानते।
घर की चौखट पर बैठे-बैठे मैं सोच रहा हूँ
मैं कौन हूँ?
इन तीन ‘संस्थाओं’ ने
मुझे कैसा प्रश्न दे दिया है।
गीतांश विवेक
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