कविता

अप्रैल 1, 2023 - 10:59
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कविता

किसी ने कहा,

 बनारस 'जाना' है।

 मैंने सोचा

 यह मर्मज्ञ प्रजाति के लोग भी

क्यों नहीं कहते कि,

बनारस पहुँचना है...

फिर सोचा पूछूँ उससे

बनारस 'जाकर' एक दौड़ में भागना है

 या वहाँ 'पहुँचकर' जीवन जीना है??

पर हिम्मत नहीं हुई

 कुछ कहने की

 फिर याद आया कि,

नहीं होने को...

कबसे कोई टकटकी बाँध कर देख रहा है।

तो शायद अब बारी है 'होने की'

फिर, मन ने एक सवाल किया।

लेकिन 'होगा' भी तो क्या??

 और सोचा उसकी आत्मा के कानों में बुदबुदाऊं,

 ज़रा बताओ तो,

बनारस जाने से होगा भी तो क्या??

 और देखूँ होते हुए,

 उसकी देह में एक 'परकाया प्रवेश'

किसी ऐसे व्यक्ति का

 जिसने बनारस को नहीं

बनारस ने जिया हो जिसे...

और वह व्यक्ति कहे मुझसे,

 मैं पहुँचा नहीं पा लिया है--

'बनारस' मैंने।

 फिर एक पल रुक कर पूछूँ मैं,

 कैसे??

तब कहे वह कि...

हर मंदिर की सुगंध आत्मा में संजोते हुए,

हर गली की मिट्टी को मन में रमाते हुए,

हर घाट पर शिव-पार्वती को निहारते हुए,

और अस्सी की सीढ़ियों पर खड़े हो,

बहुत ऊपर आकाश ताकते हुए

--- अनंत ब्रह्माण्ड की सारी दुनियाओं से यह कहते हुए कि

--- "बनारस इश्क़ है"

यदि चाहो तो,

अभी काटो

 मुझे मेरा लहू लाल नहीं नारंगी बहेगा...

जिसमें "बनारस" दिखेगा।

और मैं बनारस में नहीं

बनारस मुझमें रहेगा... ????

 (उन सब के लिए जिन्हे बनारस जाना/पहुँचना है।)

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