कविता
घर के निकलें तो सही
अपनी वहशत के लिए
ढंग का सहरा ढूँढ़ें
ओस की झील में
हसरत का जज़ीरा ढूँढ़ें
वक़्त बहता हुआ दरिया है
तो क्या सुर्ख़रूई का कोई
एक तो लम्हा होगा
चलें ज़िंदाँ की तरफ़
दार के साए में खड़े हो जाएँ
ढल चुकी उम्र की धूप
अब तो बड़े हो जाएँ
◆ राही मासूम रज़ा
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