ग़ज़ल
मुझे तो कतरा होना बहुत सताता है
इसीलिए तो समंदर पे रहम आता है
वो इस तरह भी मेरी अहमियत घटाता है
की मुझसे मिलने में शर्तें बहुत लगता है
बिछड़ते वक्त किसी आंख में जो आता है
तमाम उम्र वो आंसू बहुत रुलाता है
कहाँ पहुँच गयी दुनिया उसे पता ही नहीं
जो अब भी माजी के किस्से सुनाये जाता है
उठाये जाएँ जहाँ हाँथ ऐसे जलसे में
वही बुरा है जो कोई मसअला उठता है
न कोई ओहदा न डिग्री न नाम की तख्ती में
रह रहा हूँ यहाँ मेरा घर बताता है
समझ रहा हो कहीं खुद को मेरी कमजोरी
तो उससे कह दो मुझे भूलना भी आता है
वसीम बरेलवी
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