ग़ज़ल
ग़ज़ल/ ghazal
तुम्हारी शक्ल किसी शक्ल से मिलाते हुए
मैं खो गया हूँ नया रास्ता बनाते हुए
मेरा नसीब कि पतझड़ में खिल गए हैं
फूल वो हाथ आ लगा है हाथ आज़माते हुए
मैं झूट बोल दूँ लेकिन बुरा तो लगता है
तुम्हारे शेर किसी और को सुनाते हुए
उतर के शाख़ से औरों में हो गया आबाद
कि उम्र काट दी जिस फूल को खिलाते हुए
अकेला मैं नहीं मुजरिम शब-ए-विसाल का दोस्त !
थी तेरी फूँक भी शामिल दिया बुझाते हुए
तिरे जमाल की रंगत नज़र में रखता हूँ
मैं कैनवास पे तस्वीर-ए-गुल बनाते हुए
इसी गुमान में शब भर शराब पीते रहे
कि अब वो हाथ को रोकेगा हक़ जताते हुए
आपकी प्रतिक्रिया क्या है?