ग़ज़ल
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
सूरज निकल रहा था कि नींद आ गई मुझे
रक्खी न ज़िंदगी ने मिरी मुफ़लिसी की
शर्म चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सर्फ़ा जान कर
दुनिया मिरी दुकान पे लौटा गई मुझे
क़ैसर उल जाफ़री
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