कविता
मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूँ मैं
दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूं गुरिल्ला बागियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
मैंने अपनी जान की खातिर
अपनी हजारों पंक्तियों की
इस तरह हत्या की है
उन पंक्तियों की रूहें अक्सर
मेरे चारों ओर मंडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं:
कविवर !
कवि हो या कविता के हत्यारे
सुना था इंसाफ करने वाले हुए
कई इंसाफ के हत्यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था
कई हुए खुद धर्म की पावन आत्मा की हत्या करने वाले
सिर्फ यही सुनना बाकी था
और यह भी सुन लिया कि
हमारे वक्त में खौफ के मारे
कवि भी हो गए कविता के हत्यारे
-सुरजीत पातर
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