कविता
तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में बैठती हैं
मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों,
केन्द्रों में, घरों में।
हाय, हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा,
(और कह भी दिया)
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।
-मुक्तिबोध
आपकी प्रतिक्रिया क्या है?