रॉकेट बॉयज
सोनी लिव पर स्ट्रीम हो रहे रॉकेट बॉयज़ के दोनों सीज़न देखने लायक़ हैं. लेकिन एक बात समझ में नहीं आयी कि इसे बनाने वालों ने सीरिज़ को पठान, केजीएफ़, दसरा आदि जैसा बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस की. ज़बरदस्ती खलनायक खड़े करना और साज़िशें दिखाना होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को महान बताने के लिए ज़रूरी नहीं था.
जहाँ चाहिए था, वहाँ कल्पना शक्ति का उपयोग ठीक है, मसलन- निजी और पारिवारिक जीवन, प्रयोगशाला और बैठकों के दृश्य. भाभा और साराभाई को सलमान ख़ान और अक्षय कुमार दिखाने का कोई तुक नहीं है. इनके बारे में, देश के परमाणु और रॉकेट कार्यक्रम के बारे में तमाम साहित्य उपलब्ध है, लोग उपलब्ध हैं, बेहतर लिखा जा सकता था.
पहले सीज़न के अंत में जब देश का पहला रॉकेट छोड़ा जा रहा है, उस समय तो ऐसा लगा कि ईंधन के लीक होने की जगह को एपीजे अब्दुल कलाम अपनी हथेली से रोक लेंगे, नट-बोल्ट की जगह विक्रम साराभाई अपनी अंगुली लगा देंगे और भाभा अपने लाइटर से ही रॉकेट की पूँछ में आग लगायेंगे. और, बाक़ी लोग समवेत स्वर में गायेंगे- शिरडी वाले साईं बाबा, आया है तेरे दर पे सवाली…
अभय पन्नू ब्रो, बधाई, आपमें बहुत क्षमता है, पर मनमोहन देसाई क्यों बनना!!
आपकी प्रतिक्रिया क्या है?