ग़ज़ल

मार्च 23, 2023 - 14:21
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ग़ज़ल

अपने हाथों की लकीरों में सज़ा ले मुझको

मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को

 मैं जो कांटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन

 मैं हूँ गर फूल तो जुड़े में सजा ले मुझ को

तर्क-ए-उल्फतकी कसम भी होती है कसम 

तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को

 

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा 'नी

ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को

मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ गोता-जनभी

कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को

तू ने देखा नहीं आइने से आगे कुछ भी

खुद-परस्तीमें कहीं तू न गंवा ले मुझ को

 बांध कर संग-ए-वफ़ाकर दिया तू ने गर्काब

कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को

खुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन दामन

 कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे

 तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को

 कल की बात और है अब सा रहूँ न रहूँ

जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को

वादा फिर वादा है मै मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'कतील '

 शर्त ये है कोई बांहों में संभाले मुझ को

कतील शिफाई

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