महानगरों की बात
महानगरों की कंधे छील भागती भीड़ में खुद महानगर अकेला होता है बेहद , गाँव के उत्तर टोले वाली इमली की सी हुलस उसके भी जी में भी रहती है कि टहनियाँ हिला झाँक आऊँ पनघट तक। हाँ मगर विस्तार को शापित महानगर ऐसा कभी नहीं कर पाता , बेबश।
(महानता अभिशप्त होती हो शायद )
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