कविता
एक इक ईंट गिरी पड़ी है
सब दीवारें काँप रही हैं
अन-थक कोशिशें मे'
मारों की सर को थामे
हाँप रही हैं
मोटे मोटे शहतीरों का
रेशा रेशा छूट गया है
भारी भारी जामिद पत्थर
एक इक कर के टूट गया है
लोहे की ज़ंजीरें गल कर
अब हिम्मत ही छोड़ चुकी हैं
हल्क़ा हल्क़ा छूट गया है
बंदिश बंदिश तोड़ चुकी हैं
चूने की इक पतली सी तह
गिरते गिरते बैठ गई है नब्ज़ें छूट गईं
मिट्टी की मिट्टी से सर जोड़ रही है
पहचानो तो रो दोगी तुम घर में हूँ
बाहर हूँ घर से अब आओ तो रक्खा क्या है
चश्मे सारे सूख गए हैं यूँ
चाहो तो आ सकती हो
मैं ने आँसू पोंछ लिए हैं
अख़्तर-उल-ईमान
आपकी प्रतिक्रिया क्या है?