गीत

अप्रैल 1, 2023 - 11:48
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गीत

जमीं पे बहते लहू का हिसाब चाहता हूं मैं अब गुलाब नहीं इंकलाब चाहता हूं।

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 जमीं पे बहते लहू का हिसाब चाहता हूं

मैं अब गुलाब नहीं इंकलाब चाहता हूं।

 मेरे वो ख़्वाब जिन्हें रोजो सब जलाते हो।

 सरे निगाह…..मैं फिर से वो ख़्वाब चाहता हूँ

जमीं पे बहते लहू का हिसाब चाहता हूं

 मैं अब गुलाब नहीं…. इंकलाब चाहता हूं।

पियु तो झूम के बिस्मिल के तराने गाऊ

मैं अपने वास्ते ऐसी शराब चाहता हूं।

जमीं पर बहते लहू का हिसाब चाहता हूं 

मैं अब गुलाब नहीं ….इंकलाब चाहता हूं।

मेरे सवाल पे ….कैसे उछल के भागता है

मुझे जवाब तो दे दे …. जवाब चाहता हूं।

 जमीं पर बहते लहू का हिसाब चाहता हूं

मैं अब गुलाब नहीं… इंकलाब चाहता हूं

जरा सी बात उन्हें क्यों समझ नही आती

मैं सिर्फ तुमसे…कलम और किताब चाहता हूं।

मैं अब गुलाब नहीं ..इंकलाब चाहता हूं

 मैं अब गुलाब नहीं… इंकलाब चाहता हूं

~शशि भूषण समद

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