कथाकार
फूलमती ने तड़पकर पूछा—
किसने यह कानून बनाया है?
उमा शांत स्थिर स्वर में बोला—हमारे ऋषियों ने,
महाराज मनु ने, और किसने?
फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोली
—तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?
उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा
—तुम जैसा समझो।
फूलमती की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी।
उसके मुख से जलती हुई चिगांरियों की भॉँति यह शब्द निकल पड़े
—मैंने घर बनवाया,
मैंने संपत्ति जोड़ी,
मैंने तुम्हें जन्म दिया,
पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ?
मनु का यही कानून है?
और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो?
अच्छी बात है।
अपना घर-द्वार लो।
मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहना स्वीकार नहीं।
इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ।
वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया
और मैं ही उसकी छॉँह में खड़ी नहीं हो सकती ?
अगर यही कानून है,
तो इसमें आग लग जाए।
मुंशी प्रेमचंद्र ( बेटों वाली विधवा )
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