किताब
दो नीलकमल हैं शेष अभी
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वक़्त-वक़्त पर ‘राम की शक्तिपूजा’ पढ़ता हूँ. इसके कई हिस्सों पर मन ठिठकता है. मेरा सबसे प्रिय हिस्सा वह है, जब महाशक्ति की उपासना कर रहे राम की पूजा थाल से ख़ुद देवी फूल उठा लेती हैं. ध्यानमग्न राम अंतिम जप पूरा करने को हाथ बढ़ाते हैं. थाल में फूल नहीं मिलता. उन्हें एक क्षण लगा, अब तो सिद्धि होगी नहीं! मन में सीता का ख़याल आया
: ‘जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका.’ लेकिन राम का इस निराश मन से इतर भी एक मन है. ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका.’ वह समझ गए कि हो न हो देवी ने ही यह माया रची है. फिर उन्हें याद आया ‘कहती थी माता मुझे राजीवनयन’. यानी कमल जैसी ऑंखों वाला. तो उनके पास ‘दो नीलकमल हैं शेष अभी’! मन में यह सोच-विचारकर उन्होंने तूणीर से तीर निकाला और अपनी एक ऑंख ही देवी को अर्पित करने के लिए तैयार हो गए. राम की इस निष्ठा से अभिभूत देवी साकार हुईं. फिर ‘लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम’. उसके बाद
: ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन! कह, महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन.’ कविता इसी बिंदु पर ख़त्म हो जाती है. यहीं से हमें वागीश शुक्ल की किताब ‘छन्द छन्द पर कुमकुम’ उठा लेनी चाहिए, जो इस कविता की हिंदी में सर्वोत्तम सहचर है. सबसे अंतरंग सखा. टीका. इस किताब में क्या है, इसका अंदाज़ा इसकी भूमिका के ये सुंदर शब्द देते हैं, ‘आलोचना का काम है कि यदि कविता का सिंगार कवि के खून से हुआ है, तो उस पर इतने ऑंसू टपकाती रहे कि वह खून सूखने न पाए.’ ‘कृत्तिवास रामायण’ की भूमि को निराला ने कविता में और ‘शक्तिपूजा’ की जगह को वागीश शुक्ल ने अपनी टीका में इसी तरह उर्वर रखा है. •••
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