करुणा का अंकुश
करुणा का अंकुश
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मनु स्मृति कहती है " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥" अर्थात सत्य बोलें , प्रिय बोलें | अप्रिय सत्य न बोलें । प्रिय असत्य भी न बोलें | यही सनातन धर्म है |
इस कथन से मैं सोच में पड़ गया हूँ कि क्या अप्रिय सत्य नही बोलना चाहिए ? परन्तु क्यों ? क्या सत्य अप्रिय है तो मौन साध लेना चाहिए ? जिह्वा को विराम देना चाहिए ? किन्तु सत्याचरण में कैसी विवशता ? राजा हरिश्चन्द्र से लेकर धर्मराज युधिष्टिर तक सत्याचार की एक परिपाटी रही है इस भूभाग पर | फिर सत्य बोलने में काहे का संकोच ?
किन्तु फिर एक विचार उपजता है | और वह यह कि सत्य की हमारी समझ क्या है ? क्या हमारी आंखों द्वारा देखा गया , कानो द्वारा सुना गया और मस्तिष्क द्वारा समझा गया सत्य ही सम्पूर्ण है ? या उसमे ज्ञान का कुछ और अंश मिल जाने पर वह सम्पूर्णता प्राप्ति के पथ पर तनिक और आगे बढ़ जाएगा | या फिर यह भी कि जब वह सम्पूर्णता के समीप पहुंच रहा होगा तब वह हमें अवगत करा पाए कि अपने प्राम्भिक रूप में जब हमने उसे जाना था तब वह असत्य के कितना पास था |
तो फिर इस विचार की छांव में बैठ कर जो सोचू कि क्या सदैव सत्य वदन आवश्यक है तो उत्तर कदाचित यही होगा कि ….आवश्यक तो नही लगता |
तो फिर एक विचार और उपजता है कि हमारे कथन से सदैव सभी को सुख पहुंचे ऐसा आवश्यक तो नही | और हर बात यदि भीषण सत्यान्वेषण के बाद ही बोली जाय तो कदाचित जिव्हा पर ताला ही लगाना पड जायेगा | फिर..? फिर क्या किया जाय ? उत्तर कठिन है किंतु मेरी छुद्र बुद्धि से तनिक विचार कर जो निर्णय लूँ तो यही कहूँगा कि ऐसी परिस्थितियों में जिह्वा पर करुणा का अंकुश धरना चाहिए |
अपने सत्य को सदैव करुणा की तुला में तौलना चाहिए | और यदि थोड़ा और आगे बढूं तो कहूँगा अपने प्रत्येक वदन को इस तुला में रखना चाहिए कि जो हम बोलने जा रहे हैं वह 'सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय ' कितना है ? क्या वह सभी के लिए कल्याणकारी है ?
किन्तु आज कल का परिदृश्य तनिक विलक्षण है | सावर्जनिक जीवन में , सार्वजनिक मंच पर , सार्वजनिक रूप में कितने लोग जिह्वा पर करुणा का अंकुश धरते हैं ? और उस पर तुर्रा ये कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कोई चीज है भाई …! चिंतन का विषय है |और चिंतन से भी अधिक यह वर्तमान युग की आवश्यकता अधिक प्रतीत होता है |
' सोशल मीडिया ' के इस कालखंड में जब हमारा कहा सेकंड के सौवे हिस्से में ही आधी दुनिया की यात्रा पूरी कर सकता है , इस अंकुश की नितांत आवश्यकता है | इसलिए मनु स्मृति का यह श्लोक आज के डिजिटल युग में सबसे अधिक प्रसांगिक लगता है |
—- कंदर्प
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