हिन्दी साहित्य
आठ टेलीग्राम
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१. तुमने कभी अपने मन को देखा है ? नहीं देखा तो देखते क्यों नहीं ? देख लिया तो झाँसे में क्यों आते हो ?
२. वास्तव में मन मदारी है और आदमी बंदर। है न ? गुलाटी लग जाती है मन की डुगडुगी पर। तो जब तुम कहते हो कि तुम अपने मन के मालिक हो तब असलियत में अपने मन के ग़ुलाम होते हो। सदियों से सैकड़ों ने हज़ारों बार यह कहा। सुनते हैं पहले-पहल वही पाँच कहीं सारनाथ में बरगद तले। और जब वे पाँच फैलते हैं चारों दिशाओं में, पाँच सौ में बदल जाते हैं। समूह बनते हैं, पूजे जाते हैं। पूजे जाने पर क्या होता है ? पूजा ही बचती है, बात नहीं। बात नष्ट होकर मिट्टी में जा मिलती है। फिर उसी मिट्टी के अँधेरे फोड़कर उगता है कोई सूरजमुखी, सूरज की ओर मुख कर प्रकाशित हो झुक जाता है।
३. हिटलर के कॉन्सेट्रेशन शिविर, स्टालिन के गुलाग, हिरोशिमा नागासाकी त्रासदी या दुनिया के हरेक युद्ध के पीछे मनोरोग हैं। नहीं हैं क्या ? जो शक्ति-संपन्न थे, सब जगह दिखते थे, उनके रोग भी दिख गए। जो न स्वयं कहीं दिखते, न स्वयं को देख पाते, उनके रोग कैसे दिखते ? युद्ध-अत्याचार-शोषण का विरोध भर करने से क्या होता है ? फेफड़े को न्यूमोनिया ने घेर रक्खा हो तो वह विक्स इन्हेलर भर सूँघ लेने से ठीक नहीं हो जाता। मानव-अधिकारों की लड़ाई लड़ते हो, मन पर अधिकार तक नहीं रखते। जितना बाहर लड़ते हो, उतना मन में लड़ते हो, मन से लड़ते हो। पस्त हो जाते हो। फिर सबसे लड़ते हो।
४. तुमने अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में इतिहास पढ़ा। पर्चे लिखे। डिग्री ली। मन के पीछे-पीछे दौड़े। पटखनी खाई, बात समझ फिर भी न आई। इन दिनों क्या करते हो ? रेडियो पर मन की बात सुनते हो।
५. ज़रूरी नहीं है कि जिसका दोष प्रमाणित हो गया हो, वह दोषी ही हो। और जिसका दोष प्रमाणित न हुआ हो, वह निर्दोष ही हो। सारे बलात्कारी पकड़े नहीं जाते। अधिकांश अपने मन के अंदर बलात्कार करते हैं।
६. यह बहुत मायने की बात नहीं है कि तुम सूट पहनते हो, टाई लगाते हो, बौद्धिक विमर्श करते हो, ऊँचे दर्जे का साहित्य पढ़ते हो, सॉकर देखते हो या अपने परिवार को पर्याप्त समय देते हो। तुम्हारी असलियत उस अँधेरी कोठरी में है जहाँ तुम जाने से डरते हो। तुम्हारे अवचेतन मन में।
७. "तुम फिलॉस्फ़र हो गयी हो।" फ़ेमिनिस्ट सहेली बुझे मन से कहती है। "फ़लसफ़े तो तुम्हें समझ आते नहीं। आँकड़े तो समझती हो न ? देख लो कि दुनिया में कितनी औरतें फ़लसफ़ी हो पायीं।" अंदाज़ा ऐसा था कि उसके तरक़्क़ीपसंद मन को यह बात अच्छी लगेगी। मगर मैंने पाया कि आदमी फिलॉस्फ़र हो तो पढ़े-लिखे लोग थोड़ा समझने लगते हैं, अनपढ़ लोग पूजने पर उतारू हो जाते हैं। औरत फिलॉसॉफ़िकल बात कहे तो कम सहन हो पाती है। सब बराबरी से घबराने लग पड़ते हैं। ऐसा नहीं कि कहीं समानता नहीं। कई बातें, जगहें हैं, जहाँ बिन भेद के सब समान हैं। अड़चन भरा मन ऐसी ही एक जगह है।
८. मुझसे यदि तुम मन के तल पर प्रेम या घृणा कर रहे हो, प्रशंसा या निंदा कर रहे हो तो इसका कोई अर्थ नहीं बनता। क्योंकि यह स्थायी नहीं है, आने वाले किसी भी कल में यह बदल जाएगा। कल पल में बदल जाएगा। तब फिर क्या करोगे ? मामूली हूँ। मेरे लिए अपने मन को लहूलुहान करने की ज़रूरत नहीं। मुझे बरतने के लिए तुम्हें अपने मन को लाँघ जाना चाहिए। हृदय-तल तक आओ। फिर आगे देखते हैं। ___________
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