उच्च माध्यम वर्गीय परिवार और बदलता समाज
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भारतीय उच्च मध्यवर्ग समाज पहले से ज्यादा हास्यास्पद हुआ है. इन दिनों वह अपनी मूर्खता के चरम को सेलिब्रेट कर रहा है.
इन दिनों किसी मॉल में जाएं तो आपको तेजी से मुटाते लड़के-लड़कियां मिल जाएंगे, जो कचरे के डिब्बे की तरह अपने उदर को भरते जा रहे हैं. फोन में उलझी, जिद करते बच्चों का हाथ पकड़कर घसीटती, बनावटी मुस्कान चिपकाए मगर भीतर से खीज़ और चिड़चिड़ाहट में डूबी स्त्रियां और उनके पीछे-पीछे लपकते उनके पति... जिनके हाथ में ब्रांडेड कपड़ों के तीन-चार थैले होते हैं.
यह बड़ा ही संतुष्ट समाज है. गाड़ियों से उतरता है, गाड़ियों में चढ़ता है. बच्चों के साथ माता-पिता या सास-ससुर के लिए फूडकोर्ट में ट्रे लिए चपलता से जाती स्त्रियों के चेहरे पर परम संतुष्टि का भाव होता है.
वहीं वृद्ध लोगों की आँखों में तो ऐसी कृतज्ञता का भाव तैर रहा होता है कि जैसे अब उनकी ज़िंदगी में बस भवसागर पार करके स्वर्ग का दरवाजा खटखटाना ही बाकी रह गया हो. यह एक आत्ममुग्ध, आत्मकेंद्रित और आत्मरति में डूबा समाज है.
सबके चेहरे एक ऐसी संतुष्टि दिखाई देगी जो अमूमन मूर्खता की चरम स्थिति में दिखती है. लगता है सभी एक-दूसरे का अनुसरण कर रहे हैं. खाने-पीने की जगहों पर इतनी भीड़ है, इतना खाना बन रहा है, इतना लोग खा रहे हैं, फेंक रहे हैं कि लगता है कि लोग मनुष्य की बजाय हिलते हुए पेट में तब्दील होते जा रहे हैं.
लोग समूह में हँस रहे हैं, समूह में खरीदारी कर रहे हैं, लेकिन उनके भीतर कोई सामूहिकता नहीं है. सभी बेहद आत्मकेंद्रित हैं. ये सरोकारों से परे का समाज है. जिसे न तो अपने पड़ोस में चल रहे मनुष्य की चिंता है, न पेड़-पौधों की, न सृष्टि की.
यह समाज हर रोज़, हर घंटे कई टन कचरे का निर्माण करता है. लेकिन इन सारी बातों का यह अर्थ निकालना गलत होगा कि मैं आगे की लाइनों में बाज़ारवाद की आलोचना करने बैठ जाऊंगा.
बाज़ारवाद बड़ा गोलमोल शब्द है, जिसका इस्तेमाल कर के हमारे समाज की बहुत सारी जटिलताओं को नज़रअंदाज़ करके काम चलाया जा सकता है. बाज़ार तो आरंभ से रहा है और रहेगा भी... इसका यह अर्थ नहीं कि वह हम पर हावी हो जाए.
दरअसल हम भीतर से खोखले होते जा रहे हैं. भीतर के सांस्कृतिक और नैतिक सोते सूख चुके हैं. हमारे भीतर की खाली जगह में चौतरफा कचरा जमा होता जा रहा है, जंक फ़ूड, बेहूदा फैशन, निम्मस्तरीय राजनीति, अनावश्यक सूचनाएं, अफवाहें, झूठ, फर्जी ख़बरें और जाने कैसा-कैसा कचरा.
हम डस्टबिन में बदल गए हैं और राजनीति से लेकर साहित्य और भोजन तक सब कुछ कचरे में...
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