कविता
जब क्रांतियां मार्क्स की आंखों के सामने
एक एक कर 'पराजित' हो चुकी थी!
जब मार्क्स का अपना कोई देश नहीं था
अपना कोई घर नहीं था
उनकी आंखों के सामने
उनके बच्चे तड़प कर मर चुके थे
उनकी सब कुछ 'जेनी' उन्हें छोड़ कर जा चुकी थी!
तब भी मार्क्स ने क्रांति के
नये संस्करण की पटकथा लिखना नहीं छोड़ा था!
जब उंगलियां थक जाती पैर लोहे से बेजान हो जाते
तो मार्क्स धीरे से उठते
और अपने प्यारे दोस्त समुद्र से मिलने आ जाते.
मार्क्स को देखते ही
समुद्र मानो उन्हें गले लगाने को उछाह मारने लगता.
और उन्हें अपने प्यार में भिगो कर वापस लौट जाता.
मार्क्स अपनी गहरी आंखों से
समुद्र को इस तरह निहारते
मानो हाहाकार करते समुद्र की
अतल गहराइयों में छिपी
भविष्य की क्रांतियों को देखने की कोशिश कर रहे हो!
एक दिन अचानक वहीं बैठे,
समुद्र को निहारते एक बुजुर्ग मजदूर ने
दार्शनिक अंदाज में मार्क्स से यूं ही पूछ लिया
आखिर जीवन का अर्थ क्या है?
मार्क्स ने उसकी ओर गहरी नज़र से देखा
फिर लंबी सांस भरी
और उसी समय समुद्र की विशाल लहर मार्क्स की ओर दौड़ी!
मार्क्स ने उस विशाल उछाल मारती लहर से टकराते हुए कहा
संघर्ष! संघर्ष! और सिर्फ संघर्ष!
(6 सितंबर 1880 को अमेरिकी मैगज़ीन 'सन' को दिए एक इंटरव्यू के आधार पर)
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