नई किताबें

मार्च 27, 2023 - 20:20
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नई किताबें

आज़ादी के 75 साल होने पर देश अमृत महोत्सव मना रहा है लेकिन उनको इन 75 सालों से कोई सरोकार नहीं है, जो तथाकथित मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाए या उन्हें जोड़ने की सिर्फ निष्फल कोशिश ही की गई। इन्हीं लोगों की हकीकत बयां करती है शिरीष खरे जी के 12 रिपोर्ताजों का संग्रह 'एक देश बारह दुनिया'। शिरीष जी ने अपने विवरणों में देश के भीतर 12 ऐसे चुनिंदा जगहों का स्थानीय लोगों और संगठनों के माध्यम से वर्णन किया है जिनको वर्तमान समय में हाशिये पर ढकेल दिया गया है। शिरीष जी ने जिन समस्याओं को आज अपनी लेखनी के द्वारा सामने लाने की कोशिश किया है उनका समाधान दशकों पहले तक हो जाना चाहिए था। उन्होंने वंचितों के इन समस्याओं पर बहुत ही बेबाकी और सूक्ष्मता से अपने विवरण प्रस्तुत किया है। इस दौरान इन्होंने कुछ प्रश्न भी छोड़े हैं जैसे आदिवासियों को कहीं खनन तो कहीं पर पशु संरक्षण के लिए के जबरदस्ती और सुनियोजित तरीके से उजाड़ दिया जाता है। लेकिन इनके उत्पीड़न, पलायन तथा पुनर्स्थापन के मुद्दे "गर्म हवा(फ़िल्म)", "आधी रात की संतानें(किताब)" और वर्तमान में देखा जाय तो कश्मीरी पंडितों के मुद्दों की तरह प्रचलित क्यों नहीं हुए। यह सवाल सरकार और नागरिकों दोनों से है तथाकथित प्रगतिशील समाज अभी तक उनको साथ क्यों नहीं ला सका…? शुरूआत इन्होंने महाराष्ट्र के मेलाघाट से किया है जहां पर 21वीं सदी में भी सैकड़ो बच्चों के कुपोषण से मरने की खबरें हर साल आती रही हैं, 1991 से 2008 के मध्य लगभग 10762 बच्चों के मरने की खबर है लेकिन सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं है कि ये सब मौतें भूखमरी से हुई है। महाराष्ट्र में देह व्यापार के लिए जाने जाने वाले कमाठीपुरा के बारे में लेखक ने उनकी समस्याओं और यहां पर लाये जाने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। जिनमें से कुछ अब इस पेशे से दूर होना नहीं चाहतीं और कुछ हैं जो अपने खुद और अपने बच्चों को इससे दूर रखना चाहतीं हैं। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से शिरीष जी ने घुमंतू बंजारों के अस्तित्व, आवास और संघर्षों का विवरण दिया है साथ ही सैयद मदारियों का भी, जो अपने परंपरागत पेशे की उपेक्षा के कारण भटक रहे हैं। इनके आंकड़े अभी भी सरकार के पास नहीं है। अगली कड़ी में इन्होंने पारधी जनजातियों से रूबरू कराया है जिनका उत्पीड़न औपनिवेशिक दौर से अभी तक चला आ रहा है, ये अक्सर अपराधी बताकर प्रताड़ित किये जाते हैं, शिक्षा से इनका नाता ज्यादा समय तक नहीं रहा लेकिन कुछ संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से बच्चों को शिक्षा के तरफ बढ़ाया जा रहा है। अगले भाग में इन्होंने सूरत के माध्यम से नवीनीकरण की हकीकत को बताया है। जिसे दबाव के कारण मीडिया नहीं दिखा पता, कि किस तरह से उनको बिना किसी पूर्व सूचना व उचित मुआवजे के ही उजाड़कर पूंजीपतियों को बैठा दिया जाता है। अपने विस्तृत पड़ताल में इन्होंने जंगलों की कटाई, पावर प्लांट, इससे निकलने वाले अपशिष्ट(राख और धुआं) तथा नर्मदा नदी तंत्र पर बने हजारों बांधो के द्वारा नदियों तथा जंगलों की दयनीय स्थिति और सुनियोजित तरीक़े से प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर एक विस्तृत आंकड़ा प्रस्तुत किया है, नर्मदा और सहायक नदियों के किनारे मिलने वाले पुरावशेषों और उनके समृद्ध अतीत के बारे में बताया है। 'सुबह होने में देर है' नामक शीर्षक में लेखक ने राजस्थान के बाड़मेर में एक निम्न वर्गीय 15 साल की बच्ची के साथ हुए बलात्कार का वर्णन किया है, दलितों के साथ हुए जबरदस्ती और उनके पशुओं को जबरदस्ती लेकर चले जाने पर भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, उन्हें उच्च पदों पर कोई स्वीकार नहीं करना चाहता है और हकीकत यही है कि न्याय अभी भी जातीय संकीर्णता से ग्रस्त है और विरोध करने पर मारपीट तथा गांव से बाहर कर दिया जाता है। अगले भाग में बस्तर के आदिवासियों के उजड़ने और पुनर्स्थापन के बारे में बहुत ही बेबाकी से विवरण प्रस्तुत किया है। एक आंकड़े में वो बताते हैं कि 2015 में सरकार ने बस्तर में 782 स्कूलों को बच्चों की अनउपलब्धता के कारण बन्द करने का आदेश दे दिया… सरकारी सहयोग से भूमि का अधिग्रहण और फिर कंपनियों के द्वारा उस पर अवैध खनन बहुत ही सुनियोजित तरीके से किया का रहा है जिससे मजबूरन वहां की जनता को पलायन करना पड़ता है…बस्तर क्षेत्र में ऐसे ही अनगिनत कई दृश्य हैं जिनमें सरकार पूजियतियों के सहयोग से जनजातियों को समेटने में लगी हुई है। शिरीष जी ने अपनी पड़ताल में बस्तर में हुए नक्सल आंदोलन की शुरुआत और उनमें गतिशीलता को भी बताया है साथ ही ऐसे कई विवरण दिए हैं जिनमें ग्रामीण लोगों को जबरन पकड़ कर नक्सलियों का आत्मसमर्पण बता दिया गया है, शांति स्थापित करने के नाम पर सरकार इनके सामाजिक और आर्थिक शोषण को नहीं स्वीकार कर रही है, कुछ सैनिकों के द्वारा आदिवासी महिलाओं का शोषण किये जाने का भी जिक्र भी उनके माध्यम से किया है। आखिरी विवरण सूखा प्रभावित छत्तीसगढ़ का है जिसमें सरकारी सहायता के नाम पर सिर्फ फाइलों को पूरा किया जाता है जो नहरें बनी भी हैं उनमें पानी समय से छोड़ा नहीं जाता, राहत पैकेज वापस चला जाता है और कुछ बचा हुआ अनाज सूदखोरों और दलालों के पास चला जाता है। हालांकि यह किताब सिर्फ शीर्षक देखकर ही मंगाए थे कुछ व्यस्तताओं के कारण थोड़ी देर से पढ़े, हालांकि किताब उम्मीद से भी अच्छी निकली, आगे भी ऐसे ही लेखों की आशा के साथ खरे जी को शुभकामनाएं। आप सब जरूर पढ़ें किताब। "उम्मीद की पाठशाला" भी बहुत ही बेहतरीन है अभी जारी है…????

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