ब्रज भाषा के सम्बंध में
1912 में बाबू शयामसुंदर दास ने शिक्षा विभाग को लिखा कि ब्रज को हिंदी के कोर्स की किताबों से हटाया जाना चाहिए.
इलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन की मीटिंग में ब्रजभाषा और ब्रजभाषा की परम्परा की खुलकर कड़े शब्दों में बुराई की गई.
(p-100) मैथिलीशरण गुप्त ने घोषणा की कि जो लोग अब भी ब्रजभाषा की कविताओं के पीछे दीवाने हैं, वे "सचमुच हमारी राष्ट्रभाषा के पक्के दुश्मन हैं."
(page 101) 1888 में छपा एक संपादकीय - "ब्रजभाषा अधिकतर अनपढ़- गंवार ही बोलने में लाते हैं, पर खड़ी हिंदी सुशिक्षितों के बोलने और लिखने दोनों में आती है. "
(page 101) भारतेन्दु जो स्वयं रसा उपनाम से उर्दू में शायरी करने का दम भरते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने उर्दू को "तवायफों और वेश्याओं की भाषा" करार दिया. 1926 में सुमित्रानंदन पंत के कविता संकलन पल्लव की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि हिंदी भाषा को ब्रजभाषा की कैद से निकलना चाहिए क्योंकि ब्रजभाषा आउट ऑफ डेट है.
पृष्ठ संख्या- 109 ये सारे उद्धरण आलोक राय की पुस्तक हिंदी राष्ट्रवाद से लिए गए हैं. अगर इन सबके आधार पर (यहां और बहुत से उद्धरण हो सकते हैं) Polemically यह कहना क्यों अनुचित है कि हिंदी ने ब्रजभाषा की धीरे धीरे गला रेतकर हत्या की है. चूंकि किताबों के हवाले की बात है तो दो चार हवाले और सही.......
महावीर प्रसाद द्विवेदी 1901 में अपने प्रसिद्ध लेख कवि कर्तव्य में लिखते हैं कि "सभ्य समाज की जो भाषा हो उसी भाषा में गद्य-पद्यात्मक साहित्य होना चाहिए. .....गद्य साहित्य की उत्पत्ति से पहले ब्रज भाषा का ही सार्वदेशिक प्रयोग होता था...कवियों को चाहिए कि क्रम-क्रम में गद्य की भाषा में भी कविता आरंभ करें..पद्य में ब्रज की भाषा का आधिक्य बहुत दिनों तक नहीं रह सकता."
(सुंदर के स्व्पन- दलपत राजपुरोहित. पृ208) द्विवेदी जी again on ब्रजभाषा- "अश्लीलता और ग्राम्यता-गर्भित अर्थों से कविता को कभी दूषित नहीं करना चाहिए. ...यमुना के किनारे-किनारे केलि कौतूहल का अद्भुभुत अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका.
" पृष्ठ 209 सुंदर के स्वप्न. "भारतेन्दु बलिया के अपने भाषण में जिस निज भाषा के उन्नति की बात कह रहे हैं वो खड़ी बोली हिंदी है जिस भारतेन्दु और उनके समकालीन विकसित कर रहे थे. इस काल पर महत्वपूर्ण शोध करने वाली वसुधा डालमिया कहती हैं कि पूरे देश की एक भाषा होने की अवधारणा एक ब्रिटिश अवधारणा थी जिसे अग्रेज भारत में लागू कर रहे थे."
page - 207 सुंदर के स्वप्न. मैं इसमें बस यह जोड़ रहा हूं कि इस अवधारणा को जिसे ब्रिटिश लागू कर रहे थे. हिंदी वाले उसका लाभ उठा रहे थे और दूसरी भाषाओं को खत्म कर रहे थे खड़ी बोली को स्थापित करने की प्रक्रिया के तहत. इसे सरलीकरण कह कर खारिज करने का काम हिंदी के स्वयंभू प्रोफेसर ही कर सकते हैं.
किसी भी भाषा में अंतर्निहित अंतर्द्वंदों पर बात की जानी चाहिए ताकि हम उसे और बेहतर समझ सकें. यह सही है कि कोई भाषा हवा में नहीं बनती लेकिन खड़ी बोली हिंदी के बनने की एक राजनीति थी जिसके परिप्रेक्ष्य में ही इस भाषा को देखा जाना और समझना चाहिए.
हिंदी के प्रोफेसरों को हिंदी का जिम्मा अपने कंधों पर लेना बंद करना चाहिए. इनमें से अधिकतर पिछले सत्तर सालों से यह जिम्मा लेकर भोजपुरी अवधी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के कत्ल में अपनी भूमिका निभा रहे हैं.
यह पोस्ट लिखते हुए किसी के प्रति वैमनस्य का भाव नहीं है मेरे मन में. बहस के कारण मैंने दोबारा यह किताब खोली और यह सब वाक्य उठाए.
हिंदी न तो मेरा विषय है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं इस पर कुछ न कहूं. हिंदी के प्रोफेसर हमेशा बिदक जाते हैं जब भी हिंदी के बारे में कुछ लिखा जाए. कुछ को लुगदी साहित्य से समस्या है कुछ को लोकप्रिय साहित्य से मानो इतने सालों से लुगदी न पढ़ाई गई तो पता नहीं क्या महान रच दिया गया.
महान रचना की बात होती है तो घूम फिर कर प्रेमचंद पर ही लौटते हैं जिन्होंने अब से करीब सौ साल पहले लिखा. उससे पीछे आप अवधी के रामचरितमानस पर चले जाते हैं. आदि आदि आदि.....
ब्रजभाषा के खिलाफ हिंदी के बड़े लोगों ने सुनियोजित तरीके से षडयंत्र कर के उसे खत्म किया है...
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