ग़ज़ल165

अप्रैल 2, 2023 - 02:12
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ग़ज़ल165

ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही

 तेरे बगै़र कोई आसरा नहीं, न सही

 तेरी तलब का तक़ाज़ा है ज़िन्दगी मेरी

 तेरे मुक़ाम का कोई पता नहीं, न सही

 तुझे सुनाई तो दी, ये गुरूर क्या कम है

 अगर क़बूल मेरी इल्तिजा नहीं, न सही

 तेरी निगाह में हूँ, तेरी बारगाह में हूँ

अगर मुझे कोई पहचानता नहीं, न सही

 नहीं हैं सर्द अभी हौसले उड़ानों के वो

 मेरी जात से भी मावरा नहीं, न सही

ना-ख़ुदा= नाविक अथवा कर्णधार; तलब का तक़ाज़ा=चाह की ज़रूरत; इल्तिजा=प्रार्थना; बारगाह=कचहरी; मावरा=परे

अहमद नदीम क़ासमी...

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