ग़ज़ल
चाँद का ख्वाब उजालों की नज़र लगता है
तू जिधर हो के गुजर जाए खबर लगता है
उस की यादों ने उगा रक्खे हैं सूरज इतने
शाम का वक्त भी आए तो सहर लगता है
एक मंजर पे ठहरने नहीं देती फ़ितरत उम्र भर
आँख की किस्मत में सफर लगता है
मैं नज़र भर के तिरे जिस्म को जब देखता हूँ
पहली बारिश में नहाया सा शजर लगता है
बे-सहारा था बहुत प्यार कोई पूछता क्या
तू ने काँधे पे जगह दी तो सर लगता है
तेरी कुर्बत के ये लम्हें उसे रास आए क्या
सुब्ह होने का जिसे शाम से डर लगता है
वसीम बरेलबी
आपकी प्रतिक्रिया क्या है?