किताब (सप्तम सुर)
पेड़ 'पर' बैठने के दो ही तरीक़े हो सकते हैं :
पहला कालिदास का या फिर दूसरा न्यूटन का।
वस्तुतः न्यूटन भी पेड़ 'पर' नहीं बैठे थे। वे प्लेग से बचने के लिए लिंकनशायर में अपने गाँव चले आये थे। वहाँ खाली समय बहुत था उनके पास और पेड़ भी थे। सो उन्होंने अकर्मण्य शिशुता को सेब के पेड़ के नीचे बो दिया और फिर आगे वह हुआ जो हम-सब जानते हैं।
प्लेग उन दिनों आये-दिन फैला करते थे। मृत्यु नित्य जहाँ-तहाँ ताण्डव किया करती थी। आज भी प्लेगों के प्रकार-भर बदले हैं ; मृत्यु आज भी अवसर नहीं छोड़ती। लेकिन लोग हैं कि नगरीयता का उपचार आंचलिकता में नहीं खोजने जाते। कारण कि उनके पास अस्पताल हैं। वहाँ जाकर आधियों-व्याधियों का उपचार मिल जाता है। इसलिए कोई बीमारी से बचने के लिए गाँव क्यों जाए भला ! और वहाँ कोई वृक्ष क्यों तलाशे ! फिर उस वृक्ष से गुरुत्व की व्याख्या गिरे-न गिरे !
हम तो आज सब-कुछ पहले से नापजोख कर करने वाले लोग जो हैं ! पेड़ों के नीचे दूसरा पेड़ नहीं पनपा , ऐसा कहा जाता है। यह बात सच तो है किन्तु केवल सजातीय मामले में। पेड़ के नीचे पादप-जगत् का कुछ भी सदेह नहीं पनपता , लेकिन जिनपर पेड़ को विश्वास हो जाता है कि वे उसके अस्तित्व के लिए संकट नहीं हैं , उन्हें वह अदेह केवल पनपने ही नहीं देता , ढेरों रसीली-मीठी अनुभूतियों से नवाज़ता भी है।
जिनपर वह भरोसा करता है , उनका वह अभिभावक हो जाता है। फिर उसी के नीचे बैठकर न जाने कितने ही महापुरुष प्रकाशित होते और फिर उसी प्रकाश को बाँटते हैं। यह आलोक दरअसल उसी पेड़ का आलोक है , जो उस व्यक्ति में उतरा है और उसे मसीहा-पैग़म्बर-महापुरुष कर गया ! ज्ञान का आलोक तो पेड़ की जड़ों के पास ही मिलता है , जब उसके तने के स्पर्श को व्यक्ति की मनुष्यता पर विश्वास हो जाए।
लेकिन फिर वह कालिदास क्या कर रहा था पेड़ पर चढ़ कर कुल्हाड़ी लिये , जिसकी कथा हम-लोग किताबों में पढ़ते हैं ? पेड़ पर चढ़ना पेड़ के नीचे बैठने से बड़ी हिमाकत है। और यह हिमाक़त वे ही कर सकते हैं , जो प्रकृतिस्थ पशु हो जाएँ। पक्षी पेड़ों पर बैठते हैं , घोंसले बनाते हैं। उसके फलों को नोचते हैं , उसके तने पर चोंच मारते हैं। तमाम हिंसक-अहिंसक जानवर भी कुलांचे मारते भयहीन , पेड़ पर चढ़ जाते हैं। पेड़ उन्हें कुछ नहीं कहता।
लेकिन फिर कालिदास इन सब से जुदा है। वह पेड़ पर चढ़कर उसी शाखा को काटने में लगा है , जिस पर वह बैठा है। कालिदास प्रकृति का सबसे प्यारा बेटा है। वह पेड़ पर चढ़कर उसे काट सकता है , ताकि उसकी वृद्धि बेहतर हो। लेकिन वह वृक्षानुभूत कष्ट के समय अपने अभिभावक को अकेले छोड़ने को तैयार नहीं। इसलिए वह स्वयं भी गिरने को , चोटिल होने को तैयार है।
लकीरी विद्वान् उसे अभिधात्मक बुद्धि से समझते हैं और उसके माध्यम से विद्योत्तमा से प्रतिशोध लेते हैं। कालिदास वहाँ अपमानित होता है और उसे त्याग दिया जाता है। उसके बाद हम उसके विषय में यही जानते हैं कि वह महाकवि हुआ और उसने अभिज्ञानशाकुन्तल , विक्रमोवर्शीय , रघुवंश और मेघदूत जैसी उत्तमोत्तम काव्यरचनाओं को जन्म दिया। पर इस बीच की कथा कहाँ लुप्त है और क्या रही होगी ?
कालिदास विद्योत्तमा से अपमानित होकर फिर उसी वृक्ष पर गया होगा। चढ़ा होगा , उसने कुल्हाड़ी से वह डाल काटी होगी। अबकी बार उसे विद्या-व्यसनियों ने नहीं रोका होगा , अबकी बार वह गिरा होगा। फिर चढ़ा होगा। फिर काटछाँट। फिर पतन। फिर आरोहण। फिर आघात। पुनः। पुनः। पुनः। आरोहण-आघात-पतन के इस चक्र से वह वृक्ष नित्य सघन से सघनतर होता गया होगा। और कालिदास का काव्य उच्च से उच्चतर। इतना कि एक दिन वह वह जोड़ी संसार के सबसे घने पेड़ और संसार का सबसे बड़े कवि की जोड़ी हो गयी। आज हम कालिदास की मूर्खता तो स्कूलों में पढ़ते हैं , विद्या की उत्तमा के द्वारा उसकी फटकार भी। लेकिन फिर उसके संघर्ष को बिना समझे उसके काव्यकर्म तक आ जाते हैं। संघर्ष जानबूझकर गुप्त रखा गया है।
उस तक वे ही पहुँचें , जो सचमुच कालिदासीयता से आप्तव्याप्त होना चाहते हैं। अन्यथा अन्य के लिए वह कोर्स का सिलेबस है : पढ़िये , पास होइए , नौकरी-बिज़नेस कीजिए , पैसे कमाइए। फलदार पेड़ के नीचे बैठना जोखिम उठाना है , किन्तु फल-प्राप्ति की आशा भी तो है ! लेकिन वह जो पेड़ पर चढ़कर अपनी ही आरूढ़-आसीन-वृत्ति को काटे डाल रहा है , उसका जोखिम कहीं बड़ा है। दैवाधीन फल-पात का वह प्रतीक्ष्य नहीं है , वह सकर्मक होकर स्वयं फल-सा गिरना चाहता है !
दुनिया में हमें यतीम होकर जीने के लिए कहा जा रहा है। हम अनाथ हैं नहीं , हमें किन्तु सिखाया जा रहा है कि अपने माँ-बाप का गला घोंट दो। पेड़ के नीचे बैठना आउटफैशन्ड और पुराना मॉडल है। नये में जियो। नयी पीढ़ियाँ पेड़ों-तले न बैठतीं हैं और न उनपर चढ़ती हैं। वे पेड़ों से दूर रहती हैं। जिन स्कूली बच्चों से या कॉलेजी छात्रों से मिलना होता है , उनमें से अधिकांश अवृक्षीय आधुनिकता लिये हैं। उनपर अनेक व्रण हैं , लेकिन वे अर्बन हैं ! गैजेट-कालनेमियों ने उन्हें ऐसा झाँसे में फँसाया है कि ग्राम्य-वन्य सर्जनाओं से उनका कब-का विच्छेद हो चुका है। वे किन्हीं लक्ष्मणों के लिए संजीवन-कर्म नहीं कर सकते , वे तो स्वयं रोगग्रस्त और भ्रमजीवी हैं ! ऐसे में रावण की जय कैसे न हो ! नया कुछ भी उन्हें मिला है जिनके पास समय है और मूर्खता भी। वे जो किसी पेड़ की सोहबत में बैठ सकते हैं , वे ही मानव-विकास के मसीहा हैं। उनपर कुछ गिरे या वे गिरें , नयी सर्जना की उर्वरता उन्हीं में है !
क्या आपके पास अपना कोई पेड़ है ? क्या आप उसके नीचे कभी बैठे हैं ? उस पर कभी चढ़े हैं ? उससे कभी गिरे हैं ? जहाँ आपकी शिक्षा चल रही है , वहाँ पेड़ों को उगाने का चलन है ? ऑक्सीजन और छाया के अलावा आपको पेड़ों की सरपरस्ती के कालिदासीय-न्यूटनीय मायने पता हैं ? उगना है मिट्टी से ऊपर , तो पेड़ से जुड़िए। काट दिया है आपने , तो क्षमा माँग कर फिर से उसे बोइए। जानता हूँ , समय लगेगा। जीवन-भर भी धूप से झुलसना पड़ सकता है। समय सारा बीत भी जाए , तो कोई बात नहीं। हरे पत्तों-बूटों को फूटते देखना और यह कल्पित करना कि कभी इससे छाया झरेगी , कम आनन्द की बात है भला !
और यह भरोसा रखिएगा कि आपकी अगली पीढ़ी में पेड़ आपसे पहले उगेगा और आपसे घना भी होगा। अपनी मिट्टी की उर्वरता जो आप उन्हें देंगे , वह उन्हें उर्वरतर बनाएगी। सूचनाओं की हिंसक धूप में झुलस रहे हैं हम ! यह बिना ग्रीनरी के पैदा होने वाला ग्रीन-हाउस-एफ़ेक्ट है !
नाम में हरियाली जैसे हमें चिढ़ा रही हो ! संसार महज़ एक समतल का नाम है , जहाँ घासें ही पनपती हैं पैरों -ले रौंदे जाने के लिए। हिंसक कुचलन के बाद हर बार आप जिजीविषा के कारण उग भले ही आएँ , लेकिन आत्मच्छायी-जगच्छायी कभी नहीं हो सकेंगे।
हरे घर में नहीं रहना हमें , हरे को घर बनाना है।
---- स्कन्द शुक्ल। सप्तमस्वर६
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