क्यों बढ़ रही है त्योहार पर हिंसा?
रामनवमी के मौके पर जिस तरह पश्चिम बंगाल और बिहार में हिंसा हुई, वो दिखाती है कि वोट पाने के लिए राजनीतिक किस हद तक गिर सकती है.
पश्चिम बंगाल में हावड़ा, हुगली और उत्तर दिनाजपुर व बिहार में सासाराम और बिहार शरीफ- दो अलग-अलग राज्यों में स्थित इन शहरों में सिर्फ एक समानता है. और वह है इस साल रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर यह तमाम इलाके सांप्रदायिक हिंसा की आग में जलते रहे हैं. यूं तो गुजरात के बड़ोदरा और महाराष्ट्र के संभाजी नगर में भी इस मुद्दे पर सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था. लेकिन खासकर बंगाल और बिहार में तो यह हिंसा और इसके साथ होने वाली आगजनी भयावह रही.
इस मौके पर निकलने वाली शोभायात्राओं पर अब धर्म की बजाय सियासत का रंग चटख होने के आरोप लगते रहे हैं. इस हिंसा के लिए प्रशासन की लापरवाही पर भी सवाल उठ रहे हैं. खुद ममता बनर्जी इस मामले में पुलिस की भूमिका की सार्वजनिक आलोचना करते हुए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कह चुकी हैं.
आखिर पश्चिम बंगाल समेत विभिन्न राज्यों में रामनवमी के त्योहार राजनीति का हथियार क्यों बनते जा रहे हैं? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि हाल के वर्षों में त्योहारों के मुद्दे पर होने वाले इन दंगों के सियासी निहितार्थ हैं. दंगों से किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का ही फायदा होता है. यही वजह है कि दंगे कराने और उसकी आग में घी डालने में सत्तारूढ़ से लेकर विपक्षी पार्टी तक कोई पीछे नहीं रहती. जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर जहां जिसकी चलती है वह अपनी चलाता है. दंगे शुरू होते ही आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो जाती है जो दंगों की आग ठंडी होने के बाद भी महीनों चलती रहती है. और अगर कोई चुनाव नजदीक हो तो तमाम पक्ष इस मुद्दे को येन-केन-प्रकारेण चुनावी नतीजों तक जीवित रखने के प्रयास में जुटे रहते हैं.
बिहार में रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर आखिरी बार दंगे वर्ष 2018 में हुए थे. लेकिन इस साल रामनवमी के मौके पर बिहार के दो शहरों- बिहार शरीफ और सासाराम में हिंसा भड़की. बिहार शरीफ की हिंसा में एक युवक की मौत हो गई जबकि सासाराम में कई परिवार हिंसा के डर से घर छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चले गए. इस हिंसा में लाखों की संपत्ति का नुकसान हुआ है. दोनों शहरों में अब तक दहशत का माहौल है.
रामनवमी की शोभा यात्रा में अब एक बदलाव यह आया है कि इसका आयोजन बड़े स्तर पर होने लगा है. बिहार शरीफ और सासाराम में पहले भी कई धार्मिक आयोजन होते रहे हैं. लेकिन वहां हाल के वर्षों में कभी ऐसी हिंसा नहीं हुई. सासाराम में इससे पहले वर्ष 1989 में आखिरी बार सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. दूसरी ओर, बिहार शरीफ में पिछली बार सांप्रदायिक हिंसा वर्ष 1981 में हुई थी.
बिहार में इन दंगों के बाद बड़े पैमाने पर राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो गई है जो दंगे की आग शांत होने के बावजूद जारी है.
पश्चिम बंगाल में रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर उसी दिन हावड़ा से सटे शिवपुर में पथराव, हिंसा और आगजनी हुई. उसके दो दिनों बाद उससे सटे हुगली जिले के रिसड़ा में भी यही घटना दोहराई गई. यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि वर्ष 2018 में कोयलांचल के नाम से मशहूर आसनसोल-रानीगंज इलाके में रामनवमी के जुलूस से ही बड़े पैमाने पर दंगा भड़का था. उनमें जान-माल का काफी नुकसान हुआ था.
तृणमूल कांग्रेस ने हिंसा और आगजनी को भाजपा की सुनियोजित साजिश करार दिया है. तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता जयप्रकाश मजूमदार ने सवाल किया है कि आखिर रामनवमी के दो दिनों बाद शोभायात्रा निकालने की क्या जरूरत थी? उनका आरोप है, "दरअसल, भाजपा अपने सियासी हितों के लिए दंगे भड़का कर राज्य में अस्थिरता पैदा करना चाहती है." यही सवाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी उठाया है. उनका सवाल है कि आखिर रामनवमी के पांच दिनों बाद जुलूस निकालने की क्या तुक है?
राज्य के मंत्री अरूप राय कहते हैं, "हमने तो बचपन से ही रामनवमी के जुलूस देखे हैं. लेकिन लाठी, तलवार और पिस्तौल के साथ रामनवमी का जुलूस निकालते कभी नहीं देखा था. ऐसा वही लोग करना चाहते हैं जिनको हिंदू और मुसलमान के विभाजन से फायदा होगा."
दूसरी ओर, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष, जो रिसड़ा के जुलूस में शामिल थे, ने कहा है कि राज्य में हिंदू डरे हुए हैं. उन पर दोबारा हमले हो सकते हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने तो ममता पर गलतबयानी करने का भी आरोप लगाया है.
पश्चिम बंगाल में यूं तो त्योहारों का सियासी इस्तेमाल बहुत पहले से होता रहा है. लेकिन राज्य में भाजपा के उभार के बाद खासकर रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर सत्तारूढ़ पार्टी के साथ टकराव तेज हुआ है. वर्ष 2014 से पहले कभी रामनवमी के मौके पर बड़े पैमाने पर जुलूस और हथियार रैलियों का आयोजन राज्य के लोगों ने नहीं देखा था. यह परंपरा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुई और वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव से ठीक पहले जिस तरह रामनवमी के जुलूस पर कथित हमले के बाद आसनसोल के कई इलाको में सांप्रदायिक हिंसा हुई उसने इस आयोजन के मकसद को तो उजागर किया ही, त्योहारों पर होने वाली सियासत में हिंसा का एक नया अध्याय भी जोड़ दिया.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल, रामनवमी और हनुमान जयंती उत्सवों के बहाने विहिप और संघ ने वर्ष 2014 से ही राज्य में पांव जमाने की कवायद शुरू की थी. हर बीतते साल के साथ आयोजनों का स्वरूप बढ़ने के साथ इन संगठनों के पैरों तले की जमीन भी मजबूत होती रही. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अगर तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमानों को झुठलाते हुए 42 में से 18 सीटें जीत ली तो इसमें इन आयोजनों की अहम भूमिका रही है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "मुर्शिदाबाद के सागरदीघी सीट पर उपचुनाव के नतीजे से साफ है कि अल्पसंख्यक वोटर सीपीएम और कांग्रेस के पाले में लौट रहे हैं. ऐसे में हिंदू वोटरों को एकजुट करने के लिए ही शायद भाजपा, संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने इस साल बड़े पैमाने पर रामनवमी और राम महोत्सव मनाने का फैसला किया था."
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर सब्यसाची बसु रायचौधरी कहते हैं, "वर्ष 2018 में राज्य में पंचायत चुनाव से पहले इसी तरह रामनवमी के मुद्दे पर ऐसी घटनाएं हुई थी. अब हम 2023 में भी इसी मुद्दे पर हिंसा देख रहे हैं. अगले कुछ महीनों में पंचायत चुनाव होने हैं और अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं. तमाम सांप्रदायिक हिंसा एक ही तय पैटर्न पर हो रही है. धर्म के आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण दोनों पक्षों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए हिंसा की इन घटनाओं को महज संयोग नहीं कहा जा सकता."
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