किताब
महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज ने योगी और संन्यासी की बड़ी सुंदर परिभाषा दी है! उन्होंने कहा संन्यासी वह है, जो कर्मत्यागी और फलत्यागी है।
यानी कर्म ही त्याग दिया तो फल तो स्वत: ही छूट जावेगा, क्योंकि कर्म और फल कार्य-कारणभाव में बद्ध हैं। किन्तु यह अपूर्ण दशा है। योगी इससे विपरीत होता है। वह कर्मी है और फलाश्रयी है। वह सिद्धि हेतु परिश्रम करता है और फल पाता है।
किन्तु यह दशा भी अपूर्ण है। कविराज जी ने कहा है कि इन दोनों का सुन्दर समाधान गीता में किया गया है- पूर्ण योगी या पूर्ण संन्यासी वह है, जो कर्मी है किन्तु फलत्यागी है! वह कर्म करेगा किन्तु फलाकांक्षा त्याग देगा। इससे कार्यकारण की शृंखला बनेगी, पर उसको बाँधेगी नहीं। वही श्रेष्ठ दशा है! संन्यासी को कैवल्य मिलता है, जो पराप्रकृति है। योगी को सिद्धि मिलती है, जो अपराप्रकृति है।
किन्तु गीता के निष्काम कर्म से परमपद मिलता है, जो नित्य-चैतन्य है। श्रीकृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म का उपदेश देकर बड़ा मानक स्थापित कर दिया, वह सर्वजन के लिए सम्भव है, उसके लिए योगी और संन्यासी होना आवश्यक नहीं। पर है बड़ा दुष्कर- वायु की सुई से आकाश को भेदने जैसा! बड़ी निष्कम्प प्रज्ञा उसके लिए चाहिए। बड़ी जाग्रत दशा! पर योग और संन्यास का भी महत्व है।
संन्यास से कर्मफल का द्वैत समझ आता है। योग से विभूति-दर्शन होता है, सिद्धि मिलती है, और भले वह मुक्तावस्था नहीं, किन्तु उससे साधक का विश्वास दृढ़ होता है और यह उसकी उपादेयता है- ऐसा महामहोपाध्याय ने क्रमसाधना में विवेचित किया है!
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