कविता

मार्च 27, 2023 - 00:40
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कविता

जैसे बनारस में सूर्यास्त के बाद भी

कोई सुनना चाहे तो किसी भी घाट पर

कान धरती से सटा कर सुन सकता है

चिताओं की धू-धू विधवाओं का अकेलापन

दिल्ली में गर्मी के किसी दिन

सांस की जगह गले से उतरती है

जैसलमेर की रेत पसीने की बूँद

और आँसू मिलकर हो जाते हैं

अरब महासागर की किसी भूली हुई याद से भी खारे

कभी अपना मुक़द्दर खुद लिखने वाले हाथ

दुआ में उठते हैं तो लगता है

खैरात मांग रहे हैं फ़क़ीर

इस्तानबुल की नीली मस्ज़िद के सामने

बहता है वक़्त भी खून जैसे रगों में

अनदेखा और दिल धड़कता है

कोहलू के बैल सा क़र्ज़ चुकाता कोई

दुनिया के तमाम शहरों में

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